होली, दीपावली और शिवरात्रि का ही तथाकथित सेक्यूलरों द्वारा विरोध क्यों?

Wed 25-Dec-2024,01:23 PM IST +05:30

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होली, दीपावली और शिवरात्रि का ही तथाकथित सेक्यूलरों द्वारा विरोध क्यों?
  • पाश्चात्य नव वर्ष 1 जनवरी से प्रारंभ होता है  है, जिसे शुभ बनाने के लिए आमतौर पर मांस - मदिरा के सेवन और विभिन्न प्रकार की अश्लील पार्टियों के साथ भयानक आतिशबाजी कर पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण तथा प्रकृति संरक्षण के संदेश दिए जाते हैं!!! यह कितना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य नव वर्ष का शुभारंभ अवांछनीय कुकृत्यों से होता है। फलस्वरुप सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत वशीभूत होकर पश्चिमी देशों का अनुकरण कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने की मुहिम में भारत के कुछ तथाकथित सेक्युलर, न्यायाधीश, पर्यावरणविद्, वामी और मोमबत्ती गेंग के विचारक सम्मिलित होकर चुप्पी साध लेते हैं। 

  • होली पर पानी और महाशिवरात्रि पर दूध की 'बर्बादी' का संज्ञान लेने वालों ने क्या कभी पूछा कि क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष पर घरों, दुकानों और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स को भिन्न-भिन्न रोशनियों से सजाने में कितनी मेगावॉट ऊर्जा 'बर्बाद' हुई? क्या दीपावली पर पटाखों और दुर्गा-पूजा, गणेश-चतुर्थी आदि पर प्रतिमा विसर्जन से प्रदूषण बढ़ने की बात करने वालों ने इस ओर ध्यान दिया कि क्रिसमस पर सजावट-उपहारों में इस्तेमाल ज़हरीला प्लास्टिक या फिर करोड़ों असली पेड़ काटकर बने 'क्रिसमस-ट्री' और 'ग्रीटिंग कार्ड्स' से पर्यावरण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ा? पुराने पारंपरिक भोजन के नाम पर दुनिया भर में करोड़ों- अकेले इंग्लैंड में प्रतिवर्ष 1 करोड़, तो अमेरिका में 2.2 करोड़ टर्की पक्षी मार दी जाती हैं।

Madhya Pradesh / Jabalpur :

जबलपुर/ होली पर पानी और महाशिवरात्रि पर दूध की 'बर्बादी' का संज्ञान लेने वालों ने क्या कभी पूछा कि क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष पर घरों, दुकानों और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल्स को भिन्न-भिन्न रोशनियों से सजाने में कितनी मेगावॉट ऊर्जा 'बर्बाद' हुई? क्या दीपावली पर पटाखों और दुर्गा-पूजा, गणेश-चतुर्थी आदि पर प्रतिमा विसर्जन से प्रदूषण बढ़ने की बात करने वालों ने इस ओर ध्यान दिया कि क्रिसमस पर सजावट-उपहारों में इस्तेमाल ज़हरीला प्लास्टिक या फिर करोड़ों असली पेड़ काटकर बने 'क्रिसमस-ट्री' और 'ग्रीटिंग कार्ड्स' से पर्यावरण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ा? पुराने पारंपरिक भोजन के नाम पर दुनिया भर में करोड़ों- अकेले इंग्लैंड में प्रतिवर्ष 1 करोड़, तो अमेरिका में 2.2 करोड़ टर्की पक्षी मार दी जाती हैं। क्रिसमस के कारण टर्की-पालन एक वैश्विक उद्योग बन चुका है, जिसमें भूमि, जल और अन्य संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग होता है। क्या यह सब ईसा मसीह के मृदु व्यक्तित्व, उनके विनयशील जीवन और उनकी शिक्षाओं के अनुरूप है? जीसस क्राइस्ट यानी ईसा मसीह को ईश्वर की संतान माना जाता है, क्रिसमस का नाम भी उन्हीं के नाम पर पड़ा है, जिनकी जन्मतिथि को लेकर बहुत मतभेद रहे हैं यहां तक कि बाइबिल में भी उनके जन्म की तारीख का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

ईसाई धर्म में प्रचलित कथा के अनुसार ईश्वर ने अपने दूत जिब्रील जिसे गैब्रियल भी कहते हैं, उसे मरियम नाम की महिला के पास भेजा था। जिब्रील ने मरियम को बताया कि जो बच्चा उनके गर्भ से जन्म लेगा उसका नाम जीसस क्राइस्ट होगा। पवित्र ग्रंथ बाइबिल में वर्णित ल्यूक - मैथ्यू की गोस्पेल कथाओं के अनुसार बेथलेहेम में दिव्य हस्तक्षेप के बाद कुंवारी मेरी ने यीशु को जन्म दिया, क्या उक्त तथ्य की स्वीकार्यता  पाश्चात्य देशों के वैज्ञानिक और मार्क्सवादी देंगे ? यदि इस विश्वास को भी आधार बनाएं तो भी इसमें यीशु की जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं है इसलिए 25 दिसंबर से 6 जनवरी एपीफेनी तक अलग-अलग जन्मतिथियां निर्धारित की जाती हैं। यह भी गौरतलब है कि ईसा के जन्म के तीसरी शताब्दी पश्चात 350 ईसवी में तत्कालीन पोप जूलियस- 1ने यीशु जयंती को 25 दिसंबर को मनाने की घोषणा की। यह व्यक्तिगत व्यक्तिगत निर्णय था। उन दिनों 'पैगन' (बुतपरस्त) रोमन वासी प्रति वर्ष सैटर्नालिया पर्व मनाते थे, जिस पर उत्सव के साथ प्रीतिभोज का आयोजन और उपहारों का आदान-प्रदान होता था। यह परंपरा आज हम क्रिसमस के समय भी देखते हैं, तब पोप जूलियस - 1ने बड़ी चतुराई से एक 'पैगन' पर्व पर ईसाइयत की छाप लगा दी। संयोग देखिए कि सैटर्नालिया उन्हीं सैटर्न देवता (शनिदेव) को समर्पित था, जिन्हें प्रसन्न रखने हेतु सदियों से हिंदू पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं।

सेंटा क्लाज की भी कथा अजब है, इसमें यह बताया जाता है कि सैंटा क्लॉस( सैंट निकोलस)जिन्हें फादर क्रिसमस भी कहते हैं। उनका जन्म ईसा मसीह के लगभग 280 साल बाद तुर्कीस्तान के मायरा शहर में हुआ था। सैंटा क्लॉज के पते के बारे में यह कहा जाता है वे उत्तरी ध्रुव (नार्थ पोल) में रहते हैं वहां पर एक खिलौने की फैक्ट्री है जहां बौनों द्वारा ढेर सारे खिलौने बनाए जाते हैं। इस फैक्ट्री में क्रिसमस के लिए वर्ष भर खिलौने बनते हैं। दुनिया भर में सांता क्लाज के कई पते हैं, जहां पर बच्चे अपने पत्र भेजते हैं। आश्चर्य है कि बात तो यह है कि अमेरिकी खोजकर्ता राबर्ट पियरी ने सन् 1909 में उत्तरी ध्रुव की खोज की परंतु वहां न ही सेंटा क्लाज मिले और न ही खिलौनों की फैक्ट्री! अब सेंटा की कहानी को क्या माना जाए, यह आप स्वयं तय कर सकते हैं। क्या तथाकथित सेक्यूलरों, न्यायधीशों, वामियों और मोमबत्ती गेंग का मानवीय आधार पर कर्तव्य नहीं है कि  दिवाली, होली जैसे त्योहारों पर तथाकथित ‘कल्याणकारी’ मुहिम छेड़ने के बाद अब मोर्चा क्रिसमस और पाश्चात्य नव वर्ष के लिए खोले और लोगों में जागरूकता फैलाएँ। आखिर पता होना चाहिए कि प्रकृति को इस एक दिन से कितना नुकसान होता है। क्रिसमस के बाद के दिन, दिल्ली के प्रदूषण का स्तर कैंसा होता है? फिर भी दीवाली पर ज्ञान देने वाले बहुतायत होते हैं, क्रिसमस की आतिशबाजी पर कोई कुछ नहीं कहता।

तत्कालीन जानकारी के अनुसार क्रिसमस के इस पर्व पर अकेले इंग्लैंड में में पूरे साल के मुकाबले लोग 80% ज्यादा खाना खाते हैं। 370 मिलियन मिंस पाइस (कीमे से तैयार डिश) चबा जाते हैं। 250 मिलियन पिंट बियर और 35 मिलियन वाइन गटक ली जाती है और 10 मिलियन टर्की को शुभ मानकर काटकर ओवन में पका दिया जाता है। पेटा की एक रिपोर्ट के अनुसार यूएस में पूरे साल में 245 मिलियन टर्की मारे जाते हैं, जिसमें सिर्फ क्रिसमस पर 22 मिलियन की हत्या की जाती है।

एक अनुमान के मुताबिक 170 पाउंड (भारतीय पैसे के अनुसार 17 हजार रुपए) एक घर सिर्फ खाने पर खर्च करता है, दिलचस्प बात यह है कि वहाँ 35 प्रतिशत लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि वह आम दिनों से ज्यादा इस दिन पर खाना फेंकते हैं।

इसके अलावा विभिन्न प्रकार के मांस का सेवन क्रिसमस के दिन मानो अनिवार्य होता है। लगभग हर डिश में मांस यूज होता है। जिसका बड़ा नुकसान अपना पर्यावरण झेलता है। जी हाँ, लगभग 15-20000 लीटर पानी 1 किलो मांस  प्रोटीन के उत्पादन में खर्च होते हैं। अगर लोग इको-फ्रेंडली क्रिसमस अपना लें, और भोजन की खपत कम करें, मांस कम खाएँ तो पर्यावरण के लिए यह मददगार साबित हो सकता है।

इसके बाद इतनी अधिक मात्रा में जब खाना घरों में लाया जाता है तो उनकी सामग्री को पैक करने में जो कागज इस्तेमाल होता है उसकी भी बर्बादी होती है। रिपोर्ट बताती हैं कि सिर्फ यूके में तकरीबन  227,000 मील ऐसे कागज बेकार हुए हैं जिनसे खाना, गिफ्ट आदि हर साल रैप किया जाता है। इस आँकड़े का मतलब समझते हैं? एक आइलैंड इसमें पूरा लपेटा जा सकता है। साथ ही लगभग एक अरब क्रिसमस कार्ड्स भी इस दिन भेजे जाते हैं जिसके लिफाफे का वजन लगभग 3 लाख टन होता है।

क्रिसमस के मौके पर कार्ड दिए जाते हैं? उनका बाद में क्या होता है। सोचा है क्या किसी ने? गिफ्ट में इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक उसकी बर्बादी भी इस अवसर पर धड़ल्ले से होती है जबकि ये बात सबको पता है कि प्लास्टिक से हमारी प्रकृति को कितना नुकसान होता है और रैपिंग पेपर से किस तरह किलो के हिसाब से कार्बन डायक्साइड निकलती है। इसे बनाने में कोयले जैसे संसाधन जो इस्तेमाल होते हैं उनकी बर्बादी का आँकड़ा वो अलग है। कहते हैं कि 1 किलो रैपिंग पेपर बनाने में साढ़े 3 किलो कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

क्रिसमस ट्री इस अवसर पर घर की सजावट में चार चाँद लगाता है। कुछ लोग असली क्रिसमस ट्री को प्राथमिकता देते हैं, मगर बड़ी मात्रा में लोग कृत्रिम पेड़ को घर में सजा देते हैं। अब समस्या ये है कि ऐसे लोगों के कारण क्रिसमस ट्री के नाम पर इतने पर बड़ी मात्रा में कृत्रिम क्रिसमस ट्री का उत्पादन किया जाता है। क्रिसमस जाने के बाद इसमें प्रयुक्त प्लास्टिक का सारा दुष्प्रभाव हमारे पर्यावरण को हजार सालों तक झेलना पड़ता है। इस कारण भी इको-फ्रेंडली क्रिसमस समय की माँग है।

इनमें से 80% क्रिसमस ट्री चीन में बनते हैं। बाकी का निर्माण भी दक्षिण कोरिया आदि शहरों में होता है। चिंता की बात यह है कि इन ट्री में नॉन-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक और संभवत: मेटल टॉक्सिन, जैसे लेड आदि का, प्रयोग होता है। सैंकड़ों लोग ऐसे सामान में अपनी आमदनी खुले आम खर्च करते हैं, जिससे बड़े स्तर पर पैसों की बर्बादी होती है।

द नेशनल क्रिसमस ट्री एसोसिएशन नाम के एक व्यापार समूह, का अनुमान है कि पिछले 10 वर्षों में अमेरिकियों ने औसतन 27.4 मिलियन असली क्रिसमस पेड़ खरीदे, जिसमें $2.04 बिलियन खर्च हुए। वहीं अनुमानित 18.6 मिलियन आर्टिफिशियल पेड़ 1.86 बिलियन डॉलर में खरीदे गए थे। एक तरफ जहाँ विश्व पेड़ों को लगाने के लिए प्रयासरत है, जंगल जल रहे हैं, आबादी बढ़ रही है, ऐंसी परिस्थितियों में एक दिन के लिए करोड़ों पेड़ों का हर साल कटना बताता है कि नुकसान कौन पहुँचा रहे हैं।

यह भी उल्लेखनीय है कि क्रिसमस पर लोग मोमबत्ती जलाकर घरों की साज सज्जा करते है। लाइटों का इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि ये ध्यान कोई नहीं देता कि इन मोमबत्तियों को पैराफिन से निर्मित किया जाता है जो पेट्रोलियम का ही  दुरुपयोग करना अधिकार समझ लिया जाता है, प्रदूषण होता है, सो अलग है।

अब भारत की बात करते हैं।  केवल पश्चिमी शहरों में ही क्रिसमस पर ऐसे कार्य नहीं किए जाते जिनसे प्रकृति को नुकसान पहुँचे, वरन् भारत में भी इस त्योहार का आकर्षण बहुत ज्यादा है। दीपावली पर प्रदूषण को कोसने वाले अक्सर क्रिसमस तक पटाखों पर लगे बैन को हटा देते है। कैडबरी जैंसी कंपनियां दीपावली पर्व पर बालीवुड के अभिनेता अमिताभ बच्चन से विज्ञापन कराती हैं, जिसमें संदेश होता है कि देशी मिठाईयों की जगह चाकलेट का प्रयोग करें.. कुछ मीठा हो जाए! परंतु यही कंपनी क्रिसमस पर केक की जगह चाकलेट लेने का विज्ञापन नहीं करती है।

अंततः सच यही है कि जितने तर्क हिंदुओं के त्योहारों की आलोचना करने में दिए जाते हैं, अगर वैसें ही तर्क 25 दिसंबर, क्रिसमस पर्व पर दिए जाएँ तो स्पष्ट होता है कि क्रिसमस का बाजारीकरण, इस त्योहार का महिमामंडन केवल संस्कृतियों को ध्वस्त नहीं कर रहा है बल्कि देश, सीमा, धर्म की परवाह किए बिना जेबों को खाली करवा रहा और हमारे पर्यावरण को भी खोखला कर रहा है। वर्तमान परिदृश्य यह है कि भारत के मिशनरीज स्कूलों में भी क्रिसमस के नाम पर बच्चों से प्रोजेक्ट बनवाए जाते हैं। अच्छा खासा पैसा खर्च करवाकर इस त्योहार के प्रति उनके मन में रुझान पैदा किया जाता है। इसी प्रकार पाश्चात्य नव वर्ष मनाने की कहानी रची गई है।

पाश्चात्य नव वर्ष 1 जनवरी से प्रारंभ होता है  है, जिसे शुभ बनाने के लिए आमतौर पर मांस - मदिरा के सेवन और विभिन्न प्रकार की अश्लील पार्टियों के साथ भयानक आतिशबाजी कर पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण तथा प्रकृति संरक्षण के संदेश दिए जाते हैं!!! यह कितना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य नव वर्ष का शुभारंभ अवांछनीय कुकृत्यों से होता है। फलस्वरुप सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत वशीभूत होकर पश्चिमी देशों का अनुकरण कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाने की मुहिम में भारत के कुछ तथाकथित सेक्युलर, न्यायाधीश, पर्यावरणविद्, वामी और मोमबत्ती गेंग के विचारक सम्मिलित होकर चुप्पी साध लेते हैं। यह अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। आलेख में बहुत से तथ्य और आंकड़े गूगल से साभार हैं। ध्यातव्य हो कि उपर्युक्त आलेख किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने लिए नहीं है और न ही किसी पूर्वाग्रह का प्रतिफल है। अतः आलेख को वैज्ञानिकता के आलोक में पर्यावरण, स्वास्थ्य और प्रकृति संरक्षण की दृष्टि से देखा जाए तो श्रेयस्कर होगा।

आभार

डॉ. आनंद सिंह राणा, इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत