होलिका दहन, एक नारी का दहन नहीं वरन् अपकारी शक्ति का दहन है और रंगोत्सव सामाजिक समरसता का आदर्श
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Jabalpur/भारत में पर्व युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्पराओं, प्रथाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आदर्शों, नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक मूल्यों का वह मूर्त प्रतिबिम्ब हैं जो जन-जन के किसी एक वर्ग अथवा स्तर-विशेष की झाँकी ही प्रस्तुत नहीं करते, वरन् सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं। सामाजिक समरसता की दृष्टि से होली महापर्व सिरमौर है ,संपूर्ण भारतवर्ष के चित्र फलक में इसके विविध रंग और नाम है संपूर्ण विश्व में भारतीय इसे धूमधाम से मनाते हैं जिसमें सभी सम्मिलित होते हैं इसलिए होली एक वैश्विक पर्व हो गया है। नकारात्मक प्रवृत्तियों को त्याग कर होली के माध्यम से सुख - दुख साझा किए जाते हैं साथ ही बैर भाव मिटा दिए जाते हैं। यह पर्व समाज के सभी वर्गों के पारस्परिक मिलन और समरसता का प्रतीक है।
अनादि काल से ऐतिहासिक, पौराणिक और वैज्ञानिक दृष्टि से होली महापर्व का बड़ा महत्व माहात्म्य और इतिहास भी उतना ही अद्भुत है। भारत में होली महापर्व को फाल्गुनिका-होली-धुलेंडी-फगुआ-रंगोत्सव -मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व पांच दिवसीय है , फाल्गुन पूर्णिमा के आलोक में होलिका दहन से रंग पंचमी तक चलता है। चारों युगों में इस महापर्व की विविध गाथाएं हैं। सतयुग में भगवान शिव और पार्वती के मिलन तथा भक्त असुर पुत्र प्रहलाद के लिए भगवान विष्णु का नरसिंह अवतार , भक्त प्रहलाद के असुर पिता हिरण्यकश्यप तथा उनकी बुआ होलिका की गाथा से होली महापर्व का शुभारंभ होता है ,परंतु कल्चरल मार्क्सिज्म के शिकार तथाकथित सेक्यूलरों, ईसाई मिशनरियों और वामियों ने तो होलिका दहन को महिला विमर्श से जोड़ दिया है !!! यह इनका मानसिक दिवालियापन है, क्योंकि होलिका दहन वस्तुतः किसी महिला का दहन नहीं वरन नकारात्मक शक्ति का दहन है और सकारात्मक शक्ति विजय का प्रतीक है। ठीक उसी प्रकार जैसे दशहरा में रावण की पुतले का प्रतीकात्मक दहन होता है।
ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के आलोक में संपूर्ण विश्व में सनातन एकमात्र ऐंसा धर्म है जहां भगवान् ने कभी सुर - असुर, ऋषि - मुनियों, दैत्य - राक्षसों और स्त्री-पुरुष को वरदान और आशीर्वाद देने में कभी भेद नहीं किया।जिसने जैंसी तपस्या की उसे वैंसा ही वरदान मिला। भगवान् से प्राप्त वरदान और आशीर्वाद का जब तक सदुपयोग हुआ तब तक कुशल क्षेम रहा परंतु जब दुरुपयोग हुआ तब भी भगवान् ने वरदान को यथा स्थिति में रखते हुए ऐंसी लीला रचते थे कि वरदान पर आंच भी न आए और आसुरी प्रवृत्ति का भी अंत हो जाए।
यह बात वामपंथी , ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्युलर विद्वानों की समझ से परे है। इसलिए इन तथाकथित विद्वानों ने हिंदुत्व क्षत विक्षत करने के लिए भारतीयों को छलपूर्वक भड़का कर धर्म, वर्ण,और जाति का भेद उपजाकर संघर्ष को पैदा किया। यहाँ सुर-असुर को लेकर विमर्श करना इसलिए समीचीन है क्योंकि विषय होली का पर्व है। अब देखिए न वामियों, ईसाई, मुस्लिम और तथाकथित सेक्यूलरों विद्वानों ने सुर-असुर की अवधारणा को समझे बिना उसकी आर्य - अनार्य के रुप में व्याख्या कर देश के समाज को दो भागों में विभाजित करने का कुत्सित प्रयास किया है तथा यह दिखाया है कि भारत देश में हमेशा असुरों के साथ अन्याय किया गया, उन्हें छल पूर्वक मारा गया और दलितों, दमितों के साथ नस्लीय तथा जातिगत रुप से परिभाषित कर वैमनस्यता पैदा की है, परंतु यह कभी स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की गई कि भगवान् ने असुरों को भी सम भाव से आशीर्वाद दिया और उन्हें मनोवांछित वरदान भी प्रदान किया और उनकी रक्षा भी की है। यद्किंचित यह भी कि महान् समाज सुधारक महात्मा जोतिबा फुले जी की पुस्तक "गुलामगिरी" में लिखी बातें उनके दृष्टिकोण से सही हो सकती हैं परंतु व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो उसका दूसरा पक्ष भी है जिसे शोध आलेख में उद्धृत करने का प्रयास किया है।
असुरराज बलि को भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त था परंतु वामन अवतार लेकर भगवान् विष्णु ने उनका समूल विनाश नहीं किया वरन् पाताल लोक सौंपा और माँ लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधकर अपना भाई बनाया इसी के साथ रक्षाबंधन का महान् पर्व भी प्रारंभ हुआ। उद्भट विद्वान रावण भी महादेव और ब्रम्हा के आशीर्वाद से ही महाबली बना था। रावण ने शिव तांडव स्रोत लिखा था जो हिन्दुओं का कंठहार है। ऐंसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में सुर और असुर का विभाजन प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ है परंतु भेदभाव कभी नहीं हुआ। कभी - कभी ऐंसे अवसर भी सामने आए जब ईश्वर विभिन्न स्वरूपों में सुर और असुरों को बचाने के लिए आमने-सामने आए हैं। वहीं दूसरी ओर भगवान् ब्रम्हा के गलत आचरण के कारण, भगवान् शिव के आदेश पर अंशावतार काल भैरव ने ब्रम्हा का पांचवां सिर काट दिया था।
बाणासुर के प्रकरण में महादेव स्वयं श्रीकृष्ण के विरुद्ध बाणासुर की रक्षा के लिए सामने आ गए थे और युद्ध भी हुआ परंतु अंत में सब कुशल मंगल हुआ। अब महर्षि कश्यप के पुत्र प्रवृत्ति के अनुसार हिरण्यकश्यप असुर रुप में परिभाषित किए गए, उन्हें ब्रह्मा का अनूठा वरदान प्राप्त हुआ था ,परंतु जब वे वरदान का दुरुपयोग करने लगे तब उनके पुत्र भक्त प्रह्लाद के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया। हिरण्यकश्यप की बहन और भक्त प्रह्लाद की बुआ होलिका ने जब अपने वरदान का दुरुपयोग किया तो वे भस्म हो गईं तथा भक्त प्रहलाद सुरक्षित रहे। इस तरह होली महापर्व भी असुर समुदाय से सनातन में शिरोधार्य हुआ।
भगवान शिव और पार्वती ने पलाश पुष्प के रंग से रंगोत्सव मनाया था। पलाश को टेसू और ढाक के नाम से भी जाना जाता है। इसकी सबसे सुंदर कथा कालिदास के कुमारसंभव में है, इन्द्र के निर्देशन में शिव की समाधि भंग करने के लिए कामदेव अपने मित्र बसंत के साथ हिमालय पहुंचे ! हिमालय नई कौपलों और पुष्पों से आच्छादित हो गया।अग्निदेव ने समाधि से भंग करने के लिए महती भूमिका निभाई और पलाश के रूप फैल गया। कालिदास लिखते हैं कि"बालेन्दु वक्त्राण्यविकासमावाद्व्भु:..सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम् (बाल चंद्रमा के से आकार वाले पलाश के अत्यंत लाल फूल चारों ओर ऐंसे फैले हुए थे, मानो वसंत ने आते ही वनस्थली के साथ विहार किया हो) समाधि भंग होते ही शिव प्रयोजन समझ पाते कि उन्होंने क्रोध वश कामदेव को भस्म कर दिया। (बाद में जीवन मिला पर अंगहीन इसलिए उनको अनंग कहा जाता है) अग्नि देव भी शापित हुए और पलाश के फूल रूप में पृथ्वी पर अवतरित होना ही पड़ा परंतु पहला रंगोत्सव पलाश पुष्प के रंग से ही भगवान शिव और पार्वती द्वारा खेला गया। इसलिए सनातन में तब से पलाश के रंग से होली खेलने की महान परंपरा का शुभारंभ हुआ।
हिन्दू पंचांग के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा को होली का त्योहार मनाया जाता है। कहते हैं कि यह सबसे प्राचीन उत्सव में से एक है। हर काल में इस उत्सव की परंपरा और रंग बदलते रहे हैं।
सतयुग में ही इसी दिन शिव ने कामदेव को भस्म करने के बाद रति तो श्रीकृष्ण के यहां कामदेव के जन्म होने का वरदान दिया था। इसीलिए होली को 'वसंत महोत्सव' या 'काम महोत्सव' भी कहते हैं।
त्रैतायुग के प्रारंभ में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है। होलिका दहन के बाद 'रंग उत्सव' मनाने की परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से प्रारंभ हुई। तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंग पंचमी मनाई जाती है। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्योहार में रंग को जोड़ा ।
प्राचीनकाल में होली को होलाका के नाम से जाना जाता था और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे। इस पर्व में होलका नामक अन्य से हवन करने के बाद उसका प्रसाद लेने की परंपरा रही है। होलका अर्थात खेत में पड़ा हुआ वह अन्य जो आधा कच्चा और आधा पका हुआ होता है। संभवत: इसलिए इसका नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा। प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ भाग पहले देवताओं को अर्पित किया जाता रहा है। इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह त्योहार वैदिक काल से ही मनाया जाता रहा है।
फागुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्य लोग जौ की बालियों की आहुति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरंभ करते हैं, कर्मकांड में इसे ‘यवग्रयण’यज्ञ का नाम दिया गया है। बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है इसलिए होली के पर्व को ‘गवंतरांभ’भी कहा गया है। होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलने वाला है।
जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र (लगभग 400-200 ईसा पूर्व) के अनुसार होली का प्रारंभिक शब्द रूप 'होलाका' था। जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा संपादित किया जाना चाहिए। ज्ञात रूप से यह त्योहार 600 ईसा पूर्व से मनाया जाता रहा है।
विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। इससे यह सिद्ध होता हैं कि यह त्योहार ईसा से 300 वर्ष पूर्व भी मनाया जाता था।जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र (लगभग 400-200 ईसा पूर्व) के अनुसार होली का प्रारंभिक शब्द रूप 'होलाका' था। जैमिनी का कथन है कि इसे सभी आर्यों द्वारा संपादित किया जाना चाहिए। ज्ञात रूप से यह त्योहार 600 ईसा पूर्व से मनाया जाता रहा काठक गृह्य सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र में भी होली का वर्णन मिलता है। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।
काठक गृह्य सूत्र के एक सूत्र की टीकाकार देवपाल ने इस प्रकार व्याख्या की है-
होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते। तत्र होलाके राका देवता।
अर्थात होला एक कर्म विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है। इसमें राका (पूर्णचंद्र) देवता हैं।
होलाका संपूर्ण भारत में प्रचलित 20 क्रीड़ाओं में एक है। वात्स्यायन के अनुसार लोग श्रृंग (गाय की सींग) से एक-दूसरे पर रंग डालते हैं और सुगंधित चूर्ण (अबीर-गुलाल) डालते हैं। लिंगपुराण में उल्लेख है कि फाल्गुन-पूर्णिमा को फाल्गुनिका कहा जाता है, यह बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति (ऐश्वर्य) देने वाली है। वराह पुराण में इसे पटवास-विलासिनी (चूर्ण से युक्त क्रीड़ाओं वाली) कहा ।
प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न मूर्ति या चित्र अंकित पाए जाते हैं। ऐसा ही 16वीं सदी का एक मंदिर विजयनगर की राजधानी हंपी में है। 16वीं शताब्दी के अहमदनगर के चित्रों और मेवाड़ के चित्रों में भी होली उत्सव का चित्रण मिलता है। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में भी होली और दिवाली मनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं।
होलिका दहन के पूर्व अरंडी के पौधे को स्थापित किया जाता है तदुपरांत कंडों और लकड़ियों को एकत्रित किया जाता है , फिर प्रतीकात्मक दहन होता है, परंतु विश्व में सर्वप्रथम होली महापर्व में,होलिका और प्रहलाद की विधिवत् प्रतिमाओं का निर्माण मूर्ति शिल्प के रुप में तथा स्थापना के बाद होलिका प्रतिमा के दहन के परिप्रेक्ष्य में जबलपुर पथ जनक है। कलचुरि काल में महाकवि राजशेखर ने त्रिपुरी में होली को मदनोत्सव कहा तो गोंडवाना साम्राज्य में होली राज उत्सव के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
आयुर्धनं शुभ्रयशोवितानं
निरामयं जीवनसंविधानम्।
समागतो होलिकोत्सवोऽयं
*ददातु ते मांगलिकं विधानम्॥
डॉ आनंद सिंह राणा,
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय, जबलपुर,
उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत